कम्पनी की प्रमुख विशेषताएं (Features Of The Company )क्या है ? - 24x7DigitalLibrary

“कम्पनी” शब्द की विभिन्‍न विधिक व न्यायिक परिभाषाओं का विश्लेषण यह दर्शाता

है कि कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत गठित व पंजीकृत कम्पनी की कुछ ऐसी खास

विशेषताएं हैं जिनके कारण यह संगठनों के अन्य रूपों से भिन्‍न है|

कम्पनी की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :

1) कानून द्वारा निर्मित (Creation Of Low): कम्पनी ऐसे व्यक्तियों की संस्था

है। (केवल एक व्यक्ति कम्पनी छोड़कर) जो अस्तित्व में तभी आती है जब इसका

पंजीकरण कम्पनी अधिनियम के अंर्तगत किया जाता है। निजी कम्पनी में सदस्यों की

न्यूनतम संख्या 2 व सार्वजनिक कम्पनी में 7 होनी चाहिये। एक व्यक्ति कम्पनी का

गठन केवल एक व्यक्ति कर सकता है। (धारा 3)

(2) कृत्रिम व्यक्ति (Artificial Person): विधि की स्वीकृति द्वारा कम्पनी का

निर्माण होता है और वह अपने आप में मनुष्य नहीं हैं। इस कारण यह कृत्रिम है

और क्‍योंकि इसके अपने अधिकार व दायित्व हैं, इस लिये व्यक्ति है। इसी कारण से

कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है।

(3) स्वतंत्र विधिक अस्तित्व (Separate Legal Entity): कम्पनी उन व्यक्तियों

से, जो इस के सदस्य हैं, पृथक है। साझेदारी में ऐसा नहीं है। धारा 9 के अनुसार

पंजीकरण के बाद व्यक्तियों की संस्था उस नाम से जो नाम सीमानियम में दिया है

एक निगमित निकाय बन जाती है| कम्पनी की वैधानिक स्थिति की भारतीय उच्चतम

न्यायालय ने टाटा इंजीनियरिंग एण्ड लोकोमोटव क॑. लि. बनाम बिहार राज्य

मुकदमें में

एक अच्छी व्याख्या दी है। जो निम्नलिखित हैः

“कानून की नजर में कम्पनी एक वास्तविक व्यक्ति के समान होती है तथा इसका

अपना कानूनी अस्तित्व होता है| कम्पनी का अस्तित्व उसके शेयर धारियों के अस्तित्व

से बिल्कुल पृथक होता है, इसके पास अपना नाम और अपनी मुद्रा हो सकती है,

इसकी परिसंपत्तियां इसके सदस्यों की परिसम्पत्तियों से पृथक्‌ और भिन्‍न हो सकती

हैं, अपने कार्यों के लिए यह किसी पर मुकदमा कर सकती है और कोई इस पर

मुकदमा कर सकता है।”

यद्यपि कम्पनी का भौतिक अस्तित्व नहीं होता लेकिन कानून के प्रयोजन के लिए

इसे एक स्वंतत्र विधिक व्यक्ति माना जाता है जिसका अपना व्यक्तित्व होता है और

जो उन सदस्यों से भिन्‍न होता है जिनसे वह कम्पनी बनती है। इसलिए कम्पनी

अपने किसी भी सदस्य के साथ अनुबंध कर सकती है। एक व्यक्ति इसका अशंधारी

(शेयरधारी) हो सकता है और लेनदार भी। एक व्यक्ति कम्पनी की सारी शेयर

पूँजी का धारक होने पर भी कम्पनी के कार्यों और ऋणों के लिए उत्तरदायी नहीं

हो सकता। कम्पनी के प्रचलन के दौरान या इसके समापन पर कोई भी सदस्य

व्यक्तिगत या संयुक्त रूप से कम्पनी की परिसम्पत्तियों में स्वामित्व के अधिकार का

दावा नहीं कर सकता | इसी प्रकार कम्पनी के लेनदार केवल कम्पनी के ही लेनदार

होते हैं और वे कम्पनी के सदस्यों के विरुद्ध कार्यवाही नहीं कर सकते।

जहाँ केवल एक अंशधारी के पास ही कम्पनी के लगभग सभी शेयर हैं, वहां भी

कम्पनी का ऐसे अंशधारी से एक पृथक विधिक अस्तित्व होता है| सालोमन बनाम

सालोमन एण्ड क* लि* (Salomon vs. Salomon & Co.Ltd) के मुकदमे के

द्वारा इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है। श्री सालोमन इंग्लैंड मे जूतों का

अपना व्यवसाय करते थे। उन्होंने Salomon vs Salomon & Co.Ltd नाम की कम्पनी का गठन

किया। इसमें स्वयं सालोमन, उनकी पत्नी, चार पुत्र और लड़की शामिल थे। सालोमन

ने जूतों का अपना व्यवसाय, कम्पनी को 30,000 पौंड में बेच दिया गया। सालोमन

ने क्रय मूल्य के रूप में कम्पनी से एक-एक पौंड के 20,000 पूर्ण प्रदत्त शेयर और

40,000 पौंड के ऋणपत्र, जिनका कम्पनी की परिसम्पत्तियों पर अस्थायी अथवा चल

प्रभार (Floating Charge) था, बाकी नकद प्राप्त किया। सालोमन के परिवार के

प्रत्येक सदस्य ने 4 पौंड के एक-एक शेयर के लिए नकद अंशदान किया। सालोमन

कम्पनी का प्रबंध निदेशक था। व्यवसाय में कम्पनी कुछ अरक्षित ऋणों (Unsecured Loans) के लिए उत्तरदायी बन गयी। कुछ समय बाद कम्पनी को वित्तीय कठिनाइयों

ने घेर लिया और एक साल में इसका समापन कर दिया गया। समापन पर, इसकी

परिसम्पत्तियों से 6,000 पौंड वसूल हुए। 40,000 पौंड सालोमन की और 7,000 पौंड

अरक्षित लेनदारों को देने थे। ऋणपत्र धारक (सालोमन) को भुगतान करने के बाद

कम्पनी के पास अरक्षित लेनदारों को देने के लिए नहीं बचा | लेनदारों ने दावा किया

कि ऋणपत्रों की तुलना में उन्हें प्राथमिकता मिलनी चाहिए क्योंकि सालोमन और

सालोमन एण्ड क॑ लि. एक ही व्यक्ति है और कम्पनी तो निर्दोष लेनदारों को धोखा

देने का एक दिखावा है। अत: सालोमन को एक रक्षित लेनदार (Seecured Creditor)

नहीं माना जाना चाहिए। हाअस ऑफ लार्ड्स (House Of Lords ) ने निर्णय लिया

कि कम्पनी विधिवत्‌ गठित हुई है और इसका इसके सदस्यों से अलग एक स्वतंत्र

अस्तित्व है। इसलिए सालोमन अपनी राशि पहले प्राप्त करने का अधिकारी है क्योंकि

वह एक रक्षित लेनदार है। व्यवसाय कम्पनी का है, सालोमन का नहीं | कम्पनी और

सालोमन का पृथक्‌ विधिक अस्तित्व है। सालोमन कम्पनी का एजेन्ट है, कम्पनी

सालोमन का ऐजन्ट नहीं हैं।

टी. आर_ प्रैट (बम्बई) लि, बनाम्‌ ई, डी. सैसून एण्ड क॑ लि. (T.R Pratt (Bombay) Ltd vs E. D. Sasoon And Co. Ltd) के मुकदमे में यह कहा

गया कि कानून के अन्तर्गत एक निगमित कम्पनी का पृथक्‌ अस्तित्व होता है और

चाहे कम्पनी के सारे शेयर व्यावहारिक रुप में एक ही व्यक्ति द्वारा नियंत्रित हो फिर

भी कानून के अन्तर्गत कम्पनी का एक पृथक्‌ अस्तित्व होता है। इसी प्रकार, अब्दुल

हक बनाम दास मल के मुकदमे में कम्पनी के एक कर्मचारी ने कम्पनी के एक

निदेशक पर अपने वेतन की राशि, जो देय थी, के लिए दावा किया। यह निर्णय दिया

गया कि वह इस दावे में सफल नहीं हो सकता क्योंकि इसका उपचार तो कम्पनी

कर सकती है, उसका निदेशक या सदस्य नहीं ।

एक पृथक्‌ विधिक अस्तित्व होने से कम्पनी अपने सदस्यों के साथ अनुबंध कर सकती

है और सदस्य कम्पनी के साथ अनुबंध कर सकते हैं। इस प्रकार एक शेयरधारी

(अंशधारी) कम्पनी का लेनदार भी हो सकता है।

4). सीमित दयित्व (Limited Company): कम्पनी का एक प्रमुख लाभ यह है

कि इसके सदस्यों का दायित्व सीमित होता है। आगे चलकर आप पढेंगे कि दायित्व

के आधार पर कम्पनियों को इस प्रकार बाँटा जा सकता है: (1) शेयरों द्वारा सीमित

कम्पनियां (2) गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनियां (3) शेयर पूंजी वाली गारंटी द्वारा

सीमित कम्पनियां और (4) असीमित दायित्व वाली कम्पनियां।

शेयरों द्वारा सीमित कम्पनी में सदस्यों का दायित्व उन के शेयरों के अंकित मूल्य तक

ही सीमित होता है जो उनके पास हैं| यदि किसी सदस्य ने शेयरों की पूरी राशि का

भुगतान कर दिया है। तो उस का दायित्व शून्य होगा। गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी

में सदस्यों का दायित्व उस ने जिनकी राशि की गारण्टी दी है उस तक सीमित होगा

परन्तु शेयर पूँजी वाली गारण्टी कम्पनी में एक सदस्य का दायित्व उसके शेयरों की

राशि जो देय है और गारण्टी की गयी राशि दोनों के जोड़ तक सीमित होगा।

आप ध्यान दें कि कम्पनी अधिनियम 2013 सदस्यों के असीमित दायित्व वाली

कम्पनियों के गठन की अनुमति देता है, असीमित दायित्व वाली कम्पनियों के सदस्यों

का दायित्व उनके पास शेयरों के अंकित मूल्य तक सीमित नहीं होता। जब तक

कम्पनी के देयताओं व ऋण के एक-एक पैसे का भुगतान नहीं होता वे उत्तरदायी

होंगे। फिर भी कम्पनी के पृथक अस्तित्व होने के कारण लेनदार सदस्यों के विरूद्ध

सीधे वाद नहीं कर सकते।

(5). पृथक सम्पत्ति (Separate Property): कानून की दृष्टि में शेयरधारी उपक्रम

(एावाब्राता2) के आंशिक मालिक नहीं होते। भारत में उच्चतम न्यायालय ने

पृथक सम्पत्ति का सिद्धांत बच्चा एफ गुज्जदार बनाम कमिशनर आफ इनकम

टैक्स बॉम्बे के वाद में उत्तम तरीके से स्पष्ट किया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय

दिया कि शेयरधारी कम्पनी या इसकी सम्पत्ति का ओशिक मालिक नहीं होता। उस

को कानून द्वारा कुछ अधिकार दिये हैं जैसे कि मत देना, सभाओं में उपस्थित होना,

लाभांश प्राप्त करना।

Macaura vs. Northern Assurance Co Ltd (1925) के वाद में निर्णय दिया

गया कि सदस्य का कम्पनी की सम्पत्ति में कोई बीमा योग्य हित नहीं होता । इस वाद

में Macaura के पास एक लकड़ी की कम्पनी के एक के सिवाय बाकि सब शेयर थे |

उस ने कम्पनी की लकड़ी का अपने नाम से बीमा कराया। आग के कारण लकड़ी

जल गई । उस का दावा रद्द कर दिया गया क्‍योंकि लकड़ी में उस कोई बीमा हित

नहीं था। न्यायालय ने कहा “किसी भी शेयरधारी का कम्पनी की किसी भी सम्पत्ति की

किसी भी वस्तु में अधिकार नहीं होता क्योंकि उस का उस में कानूनी या न्यायोचित

हित नहीं हैं।”

(6) शाश्वत उत्तराधिकार (Perpetual Succession): “शाश्वत उत्तराधिकार”

शब्द का अर्थ है निरंतर विद्यमान रहना। कम्पनी का अस्तित्व इसके सदस्यों के

दिवालियापन, मृत्युपागलपन जैसे कारणों से प्रभावित नहीं होगा। कम्पनी का एक

शाश्वत उत्तराधिकार होता है। सदस्य आते रहते हैं, जाते रहते हैं लेकिन कम्पनी

चलती रहती है। यदि कम्पनी के सभी सदस्यों की मृत्यु हो जाये तब भी कम्पनी का

विधिक अस्तित्व समाप्त नहीं होगा| एक निजी कम्पनी के सारे सदस्य साधारण सभा

के समय युद्ध के मध्य एक बम के कारण मारे गए। परन्तु कम्पनी बची रही। एक

हाईड्रोजन बम भी उसे समाप्त नहीं कर सका | उपयुक्त अवस्था में मृत अंशधारियों

के कानूनी उत्तरधिकारी सदस्य बन जाएंगे | इस का अर्थ यह नहीं है कि कम्पनी का

कभी अंत नहीं हो सकता। आपने पढ़ा है कि कम्पनी विधि द्वारा निर्मित की जाती है

तथा विधि की प्रक्रिया द्वारा ही इस का अन्त भी किया जाता है।

(7) शेयरों का हस्तांतरण (Transferability Of Shares): कम्पनियों के लोकप्रय

होने का एक विशेष कारण यह है कि उन के शेयर आसानी से हस्तांतरित हो सकते

हैं। एक सार्वजनिक कम्पनी के शेयर निर्बाध रूप से हस्तांतरणीय हैं। अन्य सदस्यों

की सहमति के बिना कोई भी शेयरधारी अपने शेयरों का हस्तांतरण कर सकता है।

अन्तर्नियमों के अर्न्तगत एक सार्वजनिक कम्पनी भी शेयरों के हस्तांतरण पर कुछ

पाबंदिया लगा सकती है लेकिन उन्हें पूर्णतया नहीं रोक सकती। एक सार्वजनिक

कम्पनी का शेयरधारी जिस के पास पूर्णतया प्रदत्त शेयर हैं अन्तर्नियमों के प्रावधानों

के अनुसार किसी को भी हंस्तातरित करने में स्वतंत्र है।

कम्पनी अधिनियम 2013 में धारा 58(2) के अनुसार “उपधारा (1) पर प्रतिकूल प्रभाव

डाले बिना, किसी सार्वजनिक कम्पनी में किसी सदस्य की प्रतिभूतियां या अन्य

हित स्वच्छंद रूप से हस्तांतरणीय होंगे। बशर्ते प्रतिमूतियों के हस्तांतरण

की बाबत कोई अनुबन्ध दो या अधिक व्यक्तियों के बीच अनुबंध के रूप में

प्र्वतनीय होगा। इसलिये वर्तमान अधिनियम “सार्वजनिक कम्पनी के शेयरधारियों के

करारों को जिन में “पहले प्रस्ताव का अधिकार" और “पहले मना करने का अधिकार”

का प्रावधान है, वैध है। परन्तु एक निजी कम्पनी को हस्तांतारणीयता पर कुछ पाबंदी

लगानी आवश्यक है परन्तु निजी कम्पनी भी हस्तांतरण का अधिकार पूर्ण रूप से

वापिस नहीं ले सकती।

(8) सार्व मुद्रा (Common Seal): एक कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है, उसकी

मनुष्य की भांति देह नहीं है। इसलिये इसे अपने निदेशक, अधिकारी व दूसरे

कर्मचारियों के द्वारा कार्य करने पड़ते हैं। परन्तु यह उन दस्तावेजों के लिये बाध्य

है जिस पर इस के हत्ताक्षर हैं। सार्वमुद्रा कम्पनी के अधिकारिक हस्ताक्षर होते हैं।

इसके लिए एक धातु की मुद्रा प्रयोग करनी चाहिए प्रत्येक कम्पनी की एक सार्व

मुद्रा हो सकती है जिस पर उस का नाम अंकित होना चाहिए |

धारा 22(2) के अनुसार कोई कम्पनी, अपनी सार्व मुद्रा के अधीन किसी व्यक्ति को

साधारणतया या किसी विनिर्दिष्ट अर्टोनी अधिकार के अंतर्गत, भारत में या भारत

के बाहर उस की ओर से विलेखों के निष्पादन के लिए अधिकार दे सकती है। ऐसे

किसी अर्टनी द्वारा कम्पनी की ओर से उस की मुद्रा के अधीन हस्ताक्षरित कोई विलेख

बाध्य होगा और उस का वही प्रभाव होगा मानो वह उस की सार्वमुद्रा के अधीन किया

गया है। कम्पनी (संशोधन) अधिनियम 2015 के अनुसार सार्व मुद्रा अनिवार्य नहीं हैं।

यदि किसी कम्पनी की सार्वमुद्रा नहीं है, उस दशा में, प्रमाणीकरण दो निदेशकों या

एक निदेशक और कम्पनी सचिव, जहां कम्पनी ने कम्पनी सचिव की नियुक्ति की है,

के द्वारा किया जायेगा। पुनः, सिवाए इसके जहां इस अधिनियम में कोई दस्तावेज

या कार्यवाही, जिसका किसी कम्पनी द्वारा प्रमाणीकरण अपेक्षित है कम्पनी के किसी

मुख्य प्रबंधकीय कार्मिक या किसी ऐसे अधिकारी, कर्मचारी द्वारा हस्ताक्षरित की जा

सकेगी जिसे इस बोर्ड द्वारा अधिकृत किया गया है तथा सार्वमुद्रा की आवश्यकता

नहीं है (धारा 21)।

(9) वाद योग्यता (May Sue Or Be Sued): एक न्यायिक व्यक्ति के रूप में

कम्पनी अपने नाम से वाद ला सकती है और इस पर वाद लाये जा सकते हैं। इसका

कारण यह है कि कम्पनी का एक पृथक विधिक अस्तित्व है। कम्पनी अनुबंध कर सकती है और अनुबंधिक अधिकारों को दूसरों के विरुद्ध प्रवर्तित कर सकती है और यदि यह अनुबधों का उल्लघंन करती है तो इस पर दूसरों द्वारा वाद लाये जा सकते हैं।